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जब हमारे ज़ख़्म एक से हों और हमारे दर्द की दास्तानें भी तो मरहम लगाने में इतनी झिझक सी क्यों उठती है ज़ेहन में ? इस कविता को सुनने के बाद खुद से ये सवाल ज़रूर कीजिएगा क्यूंकि इसका जवाब आपके अंदर ही घर करके बैठा है जिसे बस थोड़ी मोहब्बत की ज़रूरत है और शायद थोड़े मरहम की भी |