Society & Culture
- जो आंतरिक शुचिता या आंतरिक निर्मलता का भाव है वही शौच धर्म है।
- संसार में हमारी जितनी पाने की आकांक्षा है वह हमें सिर्फ आश्वासन देती है, मिलता कुछ नहीं। जो हमने पाया है यदि हम उसमें संतोष रख लें तो संसार में फिर ऐसा कुछ नहीं है जो पाने को शेष रह जाए।
- वर्तमान में ये प्रचलित हो गया है कि यदि हम संतोष धारण कर लेंगे तो हमारी प्रगति रुक जाएगी। लेकिन ऐसा नहीं है। अगर हमें जो प्राप्त है हम उसमें संतुष्ट होंगे और जो हमें प्राप्त नहीं है उसके लिए सद्प्रयास करेंगे तो हमारी प्रगति नहीं रुकेगी।